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महात्मा तुलसीदास संघर्षशील मनुष्य के सच्चे उपासक हैं : प्रो.शर्मा

Wednesday, February 1, 2023

/ by Today Warta



राजीव कुमार जैन रानू

बीमारी और दरिद्रता के दो पाटों के बीच में पिसते जनजीवन में महात्मा तुलसीदास की प्रासंगिकता

ललितपुर। महात्मा गोस्वामी तुलसीदासजी के साहित्य की वर्तमान समय में प्रासंगिकता विषय पर एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो.भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि महात्मा तुलसीदास अपने युग के सबसे बड़े लोकनायक थे। उनकी भक्ति समाज से सन्यास लेते हुए भी समाजसापेक्ष थी। उन्होंने अपने प्रख्यात ग्रन्थ कवितावली में रामचरितमानस के अत्यन्त मार्मिक प्रसंगों को कवित्त शैली में प्रस्तुत किया है। प्रो. शर्मा ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास के युग में आज की कोरोना महामारी से भी भयंकर दारुणदशा का चित्रण करते हुए दीन-हीन जनों के छिनते रोजगार और असमय में जीवन से हाथ धोने जैसी त्रासद स्थितियों से रूबरू किया है यथा एक तौ कराल कलिकाल सूल-मूल, तामें कोढ़मेंकी खाजु-सी सनीचरी है मीनकी। बेद-धर्म दूरि गए, भूमि चोर भूप भए, साधु सीद्यमान जानि रीति पाप पीनकी।। दूबरेको दूसरो न द्वार, राम दयाधाम! रावरीऐ गति बल-बिभव बिहीन की। लागैगी पै लाज बिराजमान बिरुदहि, महाराज! आजु जौं न देत दादि दीनकी। अर्थात - एक तो सारे दुखों का ऐसा भयंकर दुकाल और उसमें भी कोढ़ में खाज के समान मीन राशि पर शनिश्चर की स्थिति। वे कहते हैं कि वेद धर्म लुप्त हो गये हैं, लुटेरे ही राजा महाराजा बन गये हैं तथा बढ़ते हुए पाप की गति देखकर साधुसमाज दुखी है। वे दीनानाथ से विनय करते हैं कि हे दया के धाम भगवान राम कमजोर या दुर्बल जनों के लिए आपको छोड़ कोई दूसरा द्वार नहीं है। बल वैभवशून्य जनता के लिए सिर्फ एकमात्र आपकी ही गति है। उक्तानुसार महामारी से उत्पन्न दारुणदशा और उसके निदान हेतु जननायक गोस्वामी तुलसीदासजी के गीतों के मार्मिक स्थल क्रमश: प्रस्तुत आगे भी किए जायेंगे जिनमें रोग को भगाने और जन-जन को जगाने हेतु सहृदय कवि ने अपनी मार्मिक अपील की है। उन्होंने कहा कि 16 वीं शताब्दी में तुलसीदास जी के जमाने में देश में एक ओर घातक रोग का विशेष रूप से भगवान शंकर की नगरी वाराणसी में भयंकर प्रकोप चल रहा था और दूसरी ओर उसका भयंकर परिणाम तुलसीदास जी द्वारा रचित कवितावली में वर्णित उनके शब्दों में हालात इतने बद से बदतर हो रहे थे कि खेती न किसान को, भिखारीको न भीख, बलि, बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी। जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस, कहैं एक एकन सों कहाँ जाई, का करी ? बेदहूं पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत, साँकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी। दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु! दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी। अर्थात मानवतावाद के सबसे बड़े प्रवक्ता तुलसीदासजी का कहना है कि किसान खेती से हाथ धो बैठे हैं, भिखारियों को भीख तक नसीब नहीं है, दुकानदारी बिल्कुल ठप्प है, नौकर भी अपनी नौकरी से हाथ धो बैठे हैं। जीविका के संकट का समाधान दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है। निरूपाय और असहाय जनता की आँखों के आगे इतना अँधेरा छा गया है कि कहाँ जायें ? और क्या करें ? वेद-पुराण शुरु से ही कहते आ रहे हैं कि आपके अलावा संकट को कोई दूर नहीं कर सकता। क्योंकि आपने सदैव जनता को परेशानियों से मुक्त किया है। आपको फिर दरिद्रता के दशानन जिसने पूरी दुनिया को जकड़ रखा है, हे निर्बल के बल राम जनता के हाहाकार को सुनो और उसका संहार करके जनविजय का मार्ग प्रशस्त करो। लगभग आज से 450 वर्ष पहले ऐसी पीड़ा और अपने दिल की गहराईयों से बाबा तुलसी ने जो आत्मनिवेदन कौशलाधीश प्रभु श्रीराम से किया है, उसघोर दारिद्र को स्वयं कवि ने अपने बचपन से भोगा था। संसार से व्यथित होकर उन्होंने बिल्कुल सही कहा कि विशाल समुद्र की तलहटी में जो आग छिपी है वह उतनी बड़ी नहीं है जितनी कि जन-जन की पेट की आग है। वे सर्वसमर्थ राम से अपनी आँखों में आँसू भरकर कहते हैं तुम जनि मन मैलो करो, लोचन जनि फेरो यानि हे प्रभु अगर तुम्हीं मन मैला करके जनता से आँख फेर लोगे, तो उसे डूबने से कौन बचायेगा। राम उनके लिए आशाओं का केन्द्र बन गये। अपमान और लांछन का मुकाबला करने के लिए एक अस्त्र बन गए। जब वे लोगों को दूसरों के सामने हाथ फैलाते हुए देखते हैं तो वे मना कर देते हैं और वे ललकारते हुए कहते हैं जिन डोलहि लोलुप कूकर, ज्यों, तुलसी भजु कोसल राजहिं रे अर्थात जन-जन को संगठित करके अपने युग के महानायक जैसे भगवान राम ने समता और न्याय आधारित ऐसे रामराज्य की स्थापना की थी कि जहाँ न तो किसी को रोग होता था और न ही किसी की असमय मृत्यु होती थी अल्पमृत्यु नहि कबनिउँ पीरा। सब सुन्दर सब बिरुज सरीरा। नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।

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