राजीव कुमार जैन रानू
ललितपुर। गुहराज निषादराज जयंती पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो.भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरित मानस में अयोध्या काण्ड में जो वेदना का सागर लहराता हुआ दिखाई दे रहा है, सामंतीय समाज में उपेक्षितों की वास्तविक पीड़ा से ही उत्पन्न हुआ है। ध्यान देने की बात है कि तुलसी की भक्ति वर्ण, जाति, धर्म आदि के कारण किसी को बहिष्कृत और उपेक्षित नहीं करती। राम जब चित्रकूट पहुंचते हैं, कोल-किरातों से बीस पंक्तियों में राम से उनकी भेंट का वर्णन करते हुए, तुलसी यह टिप्पणी देते हैं रामहिं केवल प्रेम प्यारा, जानि लेहु सो जाननि हारा। केवट और निषादराज के प्रसंग में नीचे समझे जाने वाले लोग राम को प्यार करके भरत और लक्ष्मण का दर्जा पा जाते हैं, तब सब लोग उसका इस तरह आदर करते हैं मानो लक्ष्मण आ गए हों। निरखि निषाद नगर नर-नारी, भए सुखी जनु लखन निहारी, विदा करते निषाद से स्वयं राम कहते हैं, तुम मम सखा भरत सम भ्राता। रहे हु सदा पुर आवत जाता। तुलसी ने समता और न्याय आधारित रामराज्य लाने के लिए सामंतीय युग में भक्ति के आधार पर जो किया वही कार्य आज के लोकतांत्रिक युग में पुनर्जागरण के आधार पर जनता कर रही है। तुलसीदास जानते थे कि नहिं दरिद्र सम दुख जगमाहीं-उन्होंने स्वयं भोगा था। आग बड़वाग्नि से बड़ी है, पेट आग की उन्होंने राम से विनय की थी दारिद दसानन दबाई दुनी दीनबंधु दरिद्रता के रावण ने सारी दुनिया को दबा रखा है, इसलिए आकर रक्षा करो। प्रश्न है, अब और कितना इंतजार दुख से डबडबाई असंख्य आँखों को करना होगा। अतीत काल में श्रमिक जनता ने बीसियों नहीं सैकड़ों बार कोशिश की है कि अपनी पीठ से उत्पीड़कों को उतार फेकें और अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में ले लें। लेकिन हर बार परास्त और अपमानित होकर उसे पीछे हटना पड़ा। हृदय में लांछन, क्रोध और निराशा भरे हुए, उसने किसी अलौकिक, अगोचर और काल्पनिक दैव या भाग्यवादिता की तरफ दीनता से हाथ उठाये हैं, जहां से उसे मुक्ति की आशा थी। मानवतावादी प्रेम में डूबी तुलसी की भक्ति, शक्ति का ऐसा अमोघ अस्त्र है, जो संघर्षरत जनसामान्य को हताश-निराश नहीं होने देगा।