राजीव कुमार जैन रानू
ललितपुर। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आवाहन पर वर्ष 2023 का विश्व स्वास्थ्य दिवस हम ऐसे मौके पर मना रहे हैं, जब कोविड 19 कोरोना वायरस कुछ दिन ठण्डा पड़कर नये वेरिएण्ट के साथ फिर सक्रिय हो रहा है। हमें और अधिक जागरूक रहने की आवश्यकता है क्योंकि थुलथुल और लप्पूझन्ना शरीर न्याय और अन्याय के संघर्ष के बीच कहीं दगा न दे जाये। इसलिए लोकनायक महात्मा तुलसीदास के शब्द पहले से भी ज्यादा सटीक कि सभी प्राणी अपनी देह को वज्र बना दें परन्तु अपने हृदय को फूलों के पराग से भी अधिक कोमल रखें। मनुष्य के स्वस्थ शरीर पर रोग हमला न कर सके यह बात तो बहुत छोटी है, किन्तु जनद्रोही दानवों का दलन के लिए हनुमान जी जैसा आन्तरिक स्वास्थ्य भी परम आवश्यक है। देश में डॉक्टर्स की उपलब्धता की स्थिति आबादी के हिसाब से बहुत कमजोर है। देश की 90 प्रतिशत जनता डॉक्टर को भगवान मानती है परन्तु वह यह नहीं जानती है कि ऐलोपैथी और आयुर्वेदिक पद्यति में बुनियादी फर्क क्या है, परंतु चिकित्सक के लिए सहानुभूति प्राणवायु की तरह जरूरी है। हमारे भारत ने भी दुनिया को संदेश दे दिया है कि हमारी अगुवायी में विश्व के समस्त मानव हमारी मानव चेन से जुड़ते चले जायें जिससे कि महामारी पर समय रहते लगाम लग सके। भारत भोग की भूमि नही, कर्म और त्याग की भूमि है ।शक्ति के सर्वोच्च स्तर तक कार्य करने के लिए पूरा पोषण हमें वनस्पति जगत से मिल सकता है जिसके बल पर हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है। साथ ही भारत ने अपनी सांस्कृतिक परम्परा के अनुसार यह सिद्ध कर दिया है कि हम देश प्रेम और मानव प्रेम में कोई भेद नहीं करते। सारी वसुधा को एक कुटुम्ब मानते हैं। यदि महामारी के अदृश्य कीटाणु राजनीतिक भूगोल की देश और प्रदेश सीमाओं को लाँघ कर सभी को संक्रमित कर सकते हैं तो मानव श्रंखला की ढाल बनाकर हम जड़ से वायरस को चेचक और मलेरिया की तरह समाप्त कर सकते हैं, बशर्ते कि सबका अपने ज्ञान से भरण-पोषण करने वाला भारत अपनी संस्कृति के अनुसार रूठी प्रकृति को समय रहते मना ले। महात्मा कबीर ने भी तो 600 साल पहले चेताया था कि- पानी बिच मीन प्यासी, मोए सुन सुन आवे हांसी, पानी के साथ-साथ साँस लेने के लिए हवा भी शुद्ध नहीं मिल रही है। खेत की मिट्टी भी रासायनिक खादों के प्रयोग से इतनी प्रदूषित हो रही है कि खाद्य पदार्थ भी अपना मूल जायका खोते जा रहे हैं। रोटी चटनी या माँगे के पनीले मठा में रूखी-सूखी रोटी से जैसे-तैसे पिटभरना करने वालों और दूसरी ओर अफरे की ब्यारी में दूध को जला-जला कर पोषक तत्वों की नष्टप्राय रबड़ी-मलाई छककर खाने वालों की रोगजनित आहार-विहार की क्षणिक समस्याओं का समाधान डॉक्टर्स के पास दवा देकर निपटाने का तो है पर किसकी थाली में कितनी दाल और किसके कप में कितना दूध, चीनी, पत्ती, जनसामान्य की क्रयशक्ति के अनुपात में होगी इसका फैसला तो अंतत: हमारी विधायिका के लोकप्रिय जनप्रतिनिधियों को ही तय करना है अत: आहार की समस्या आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के समुच्चय से जुड़ी हुई है, साथ ही परतंत्र भारत में दक्षिण अफ्रीका में अपने 22 साल के लम्बे प्रवास के संघर्ष के दौरान गाँधी जी ने पारम्परिक भोजन शैली को और अधिक स्वास्थ्यवर्धक बनाने हेतु जागृत किया था कि हम प्रकृति ओर लौटे हाथचक्की से पिसाहुआ चोकरयुक्त आटा, मूसल से ओखली में हाथ से तैयार किया हुआ गैरपॉलिस्ड चावल और दाल और अच्छी तरह से धोयी हुई हरी भाजी की पत्तियों का कच्चे रूप में सेवन करें तो 99 प्रतिशत बीमारियों के लिए चिकित्सक के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी साथ ही रोग से लडऩे की क्षमता भी विकसित हो।