एक मनुष्यके पास एक घोड़ा था। घोड़ा भूखा हो, तो दुःख । बिगड़ जाये, तो दुःख । बीमार पड़े, तो दुःख । एक दिन उसने घोड़ेको बेच दिया। अब वह घोड़ा दूसरेका हो गया। अब वह कभी पूछता ही नहीं कि घोड़ा भूखा है या प्यासा है? बीमार है या अच्छा है? मर गया या जीवित है! जानते हो क्यों? क्योंकि, अब घोड़ा उसका नहीं रहा। एक भूमि थी। मेरे पितामह उसे अपनी समझते थे। मेरे पिता भी उसे अपनी समझते थे। मैं भी उसे अपनी समझता था। यदि उस भूमिमें किसीका पशु चरने आ जाये, तो हमें दुःख होता था। यदि उसमें अच्छी फसल हो जाये, तो प्रसन्नता होती थी। एक बार सरकारी जाँच-पड़ताल हुई। हमें पता लगा कि वह भूमि हमारी है ही नहीं। मेरे पितामह, पिता और मैं भी झूठे ही उसे अपनी मानते रहे थे । हमारे पड़ोसीको अपनी भूमि भूल गयी थी। उसे पता नहीं था। अतः उसने अपनी भूमिको छोड़ रखा था और हमने उसे अपनी मानकर उसपर अपना अधिकार कर रखा था। जब कागजोंसे सिद्ध हो गया कि वह भूमि हमारी नहीं हैं, तब उसके प्रति अहंताममता चली गयी । नारायण ! यह शरीर और शरीरके सम्बन्धी भूलसे अपने माने हुए हैं। अविवेकसे, अज्ञानसे, मोहवश अपने माने हुए हैं। जब मालूम हो जाता है कि ये अपने नहीं है, तब अपनेको इनका क्या दुःख है? कुछ भी तो नहीं। निरहं- निर्मम होते ही समस्त दुःखोंसे छुटकारा मिल जाता है