इन्द्रपाल सिंह 'प्रिइन्द्र'
1857 के प्रथम जनविप्लव और गांधीयुगीन सत्याग्रह आन्दोलन में ललितपुर आगे से भी आगे पर रोटी-रोजी में पीछे से भी पीछे ?
ललितपुर। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अमर योद्धा बानपुर नरेश राजा मर्दनसिंह की जयंती के अवसर पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो.भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि आजादी की प्रथम अठारह सौ सत्तानवी जनक्रान्ति की चिनगारी को प्रचंड ज्वाला के रूप में धधकाने वाले शौर्य और पराक्रम के साथ-साथ अद्भुत धीरता के धनी बानपुर (ललितपुर) के छोटे से राज्य के राजा मर्दनसिंह ने औपनिवेशिक चक्रवर्तित्व के अहंकार में मदमस्त, ब्रिटिशराज को अपनी व्यवहारिक सूझ-बूझ से भी कूटनीतिक चालों से बार-बार पटखनी दे-देकर, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को लगभग सभी मोर्चों पर, उनके सगे बड़े भाई की तरह डटकर जो नि:स्वार्थ सहयोग, उनके दाहिने हाथ के रूप में दिया है, उसकी गूंज न केवल बुन्देलखण्ड में अपितु देशदेशान्तर तक यूरोपीय जगत में सुनाई देने लगी थी। सन् 1757 में अपनी धूर्तता और कुटिलता से जिस अँग्रेजी साम्राज्य की दागबेल लार्ड क्लाईव के हाथों डाली गई थी, वह मात्र 100 वर्षों के अन्तराल से 1857 में लार्ड डलहौजी के जमाने में पीपल के पत्ते की तरह हिलने लगेगी, इसकी परिकल्पना इग्लैंड में बैठे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के संचालकों ने कभी न की होगी। इसलिए 20 मई 1857 को वहां के जागरूक सांसद जॉन ब्राईट को हाऊस ऑफ कामन्स में, भारतीय जनता के आँख खोल देने वाले सशस्त्र जन-प्रतिरोध के सम्बन्ध में यह कहना पड़ रहा था कि सरकार के नाम पर डाकू साक्षीदारों की कम्पनी का खात्मा अब जल्दी ही होने वाला है। तुमने इस विद्रोह को दबाने, में तलवार से काम लिया, वह तलवार टूट गई है, तुम्हारे हाथ में उसकी मूठ रह गई। समस्त यूरोप की निगाह में, तुम फटकार खाये, सिर झुकाये खड़े हो। तत्कालीन ब्रिटिश मजदूर नेता, प्रखर पत्रकार, क्रान्तिदर्शी कवि, भारतीय जन-विद्रोह के सच्चे चिन्तक अर्नेस्टजोन्स ने, जिन्हें ब्रिटिश शासकों ने जेल की काल-कोठरी में डाल दिया था। उन्होंने भारतीय जन विप्लव को अखिल विश्व की उत्पीड़ित जनता के मुक्ति संग्राम की एक मजबूत कड़ी मानते हुए उसके व्यापक प्रभाव की उद्भावना अपनी कविता में प्रस्तुत करते हुए कहा था विजयी सैलाब! सैकड़ों पर्वतों से जनता के अधिकारों की दुधर्ष नदी बहती है, और सिपाही जागते हैं, एक के बाद एक दूसरी पल्टन भागती है, तब वहां से भागते हैं, पैसे के लोभी जज, ऐय्याश लार्ड, बे, मुफलिस अँग्रेज, जो यहां आकर नबाव बन गये थे, अत्याचारी-महाजन और घमंडी, व्यापारी भागते हैं, जब सारे देश में स्वतंत्रता का दुंदुभी घोष छा जाता है, सात समुन्दर पार बैठे इंग्लैण्ड के मजदूर नेता अर्नेस्ट जोन्स की आँखों में तैरने वाले पीड़ित मानवता की मुक्ति के सपने को संघर्ष की जमीन पर जिन यौद्धाओं ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया, उनमें नाना साहब, बहादुरशाह जफऱ रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, कुंवरसिंह, बेगम जीनत महल, मंगल पाण्डे, अजीमउल्ला की श्रंखला में बुन्देलखण्ड की वीरांगना अवंतीबाई, झलकारीबाई तथा बानपुर नरेश मर्दनसिंह व उनके अभिन्न सहयोगी शाहगढ़ नरेश बखतवली इस विप्लव को ऊँचाईयां देने में सदैव आगे से भी आगे रहे हैं। तदयुगीन पदयात्री मराठा पुरोहित पं विष्णुभट्ट शास्त्री ने अपनी विश्व प्रसिद्ध मराठी भाषा में लिखी मांझा प्रवास (आँखों देखा गदर) यात्रावृतांत पुस्तक के हिन्दी रूपान्तरण के पृष्ठ 22 एवं 23 पर राजा मर्दनसिंह के साहस, दृढता का खुलासा करते हुए कहा है कलकत्ते में अँग्रेज गवर्नर ने भारतीय राजाओं और नबावों के लिए ब्रिटिशराज की जड़ों को मजबूत करने के लिए जो 84 सुत्रीय कार्यक्रम में लाये जाने के लिए प्रस्तुत किया था, उसका सशक्त विरोध बानपुर जैसे छोटे राज्य के जुझारू राजा मर्दनसिंह ने किया था। उन्होंने सावधान किया था कि यह हिन्दुस्तान, भरतखण्ड जम्बूद्वीप है। समग्र देश हमारी कर्मभूमि है कोई भी इन अनुचित कार्यों (84 सूत्रों) को नहीं बनवा सकती मांझा प्रवास के पृष्ठ संख्या 65 पर अंकित है कि बानपुर के राजा को रानी लक्ष्मीबाई अपना बड़ा भाई मानती थीं इसलिए अंग्रेजों से भावी युद्ध होने की आशंका से वे अपने कुटुम्ब और खजाने सहित झांसी आ गये जहां उन्हें रहने के लिए बाईसाहब ने एक अलग महल देकर शाही बन्दोवस्त कर दिया। परन्तु कुछ दिनों बाद अँग्रेज सेनापति ह्यूरोज द्वारा निकट भविष्य में बानपुर पर आक्रमण के खतरे को भांपकर वे वहां लौट गये। ह्यूरोज ने नगर को घेर कर 7 दिनों तक लड़ाई जारी रखी। अंत में बची-खुची सेना लेकर राजा बेतवा के कछारों में जाकर डट गये। अँग्रेजों के ताबे में बानपुर राज्य के चले जाने से सम्पूर्ण झांसी में शोक छा गया। अक्सर कहा जाता था कि अँग्रेजों के राज में कभी सूर्य नहीं डूबता था परन्तु बड़ी सच्चाई यह थी कि उनके औपनिवेशिक राज में बलिदानियों का खून भी नहीं सूखता था। 100 वर्ष पूरे होने पर जब देश में 1957 में धूमधाम से शताब्दी समारोह मनाया जा रहा था तब झांसी से लौटते समय ललितपुर बानपुर में पधारे राजा मर्दनसिंह के प्रपौत्र स्व. कृष्ण प्रतापसिंह जूदेव से मेरी संयोगवश भेंट हुई। उन्होंने अवगत कराया था कि उनके यशस्वी पूर्वजों द्वारा किया संघर्ष व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति के लिए न होकर स्वराज्य प्राप्ति के लिए किया गया था। जिसके प्रमाणस्वरूप उन्होंने स्वयं उन मूलपत्रों जो रानी झांसी (बाईसाहब) और बानपुर नरेश के मध्य हुए पत्राचार के दस्तावेजों की मूलप्रतियां तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को सौंपी थी। इनमें उल्लखित स्वराज्य शब्द को पढ़कर नेहरू जी बहुत भावुक हो गये। उनकी आँखें छलछला आयीं और स्वराज्य शब्द को रेखांकित करते हुए उन्होंने इन दुर्लभ दस्तावेजों को राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में सुरक्षित करा दिया। उन्होंने अंत में कहा कि जनता कभी भी देशभक्त बहादुर सपूतों को व शत्रु से मिल जाने वाले देशद्रोहियों को नहीं भूल सकती। महाराजा के प्रपौत्र की आँखों में सहसा चमक आ गई और उन्होंने स्वीकार किया कि मैं बुन्देलखण्ड में जहां भी जाता हूं जनता मुझे बेमुकुट राजा मानकर अपने हृदय सिंहासन पर बैठाकर आज भी हर प्रकार की परतंत्रता से मुक्त होकर गरिमामय मनुष्योचित जीवन जीने के लिए संकल्पित है। यही मेरे जीवन में यश की सबसे बड़ी धरोहर है।