इन्द्रपाल सिंह प्रिइन्द्र
जनता की अपारवेदना और क्षोभ का समुद्र फूट पड़ा था, झलकारी दुलैया की वाणी में
ललितपुर। वीरांगना झलकारीबाई की जयंती पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के सेवानिवृत प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की महिला शाखा की सेनापति वीरांगना झलकारी बाई ने जब झाँसी के पतन का दुखद समाचार सुना तो वह गहरे विषाद में डूब गई। ऐसे विषम प्रसंग के संबंध में इतिहास के कंकाल में मांस और रक्त का संचार करके उसे उपन्यास सम्राट वृन्दावनलाल वर्मा ने इतना सजीव बना दिया कि झाँसी के पतन पर कलम चलाते हुए बर्मा जी का गला इतना भर उठा कि वे रानी झाँसी के बारे में कहते हैं कि महल की चौखट पर बैठकर वह रोई। वह, जिसकी आँखों का आंसुओं से कभी परिचय भी न था। वह जिसका वक्षस्थल बज्र और हाथ फौलाद के थे, वह जो भारतीय नारीत्व का गौरव और शान थी। मानो उस दिन हिन्दुओं की दुर्गा रोई। प्रो. शर्मा ने आगे कहा कि ऐसी ही संकट की घड़ी में छाया की तरह रानी का साथ देने वाली बुन्देली -आन-बान और शान की सदा हँस-मुख जीवन्त-ठसकीली प्रतिमा थी -झलकारी दुलैया। वर्मा जी कहते हैं झलकारी दुलैया का सब ठाट-बाट सोलह आना बुंदेलखंडी-पैर की पैजनी से लेकर सिर की दाउनी (दामिनी) तक सबके सब आभूषण स्थानिक। इतनी निर्भीक और साहसी थी कि सर्वोच्च अंग्रेज सैन्य अधिकारी एलिस के कुदृष्टि डालने पर अपनी सहेली से आग -बबूला होकर, वह कह उठती है जो नठया मोई और देखत तौ? ई कैं का मताई बैनें न हुइयें मोरे मन में तो आउत कै पनइयाँ उतार कैं मूछन के बरे के मों पै चटाचट दे -ओं। युद्ध के समय झलकारी उन्नाव गेट पर अपने पति के साथ ही तोपों से गोले दागती है। जब उसे पता चलता है कि रानी भाण्डेरी फाटक से सुरक्षित कालपी निकल गयीं, तो वह लड़ते हुए अंग्रेजों को अटकाये रहती है, क्योंकि कद -काठी और चेहरे-मोहरे से अंग्रेज झाँसे में आकर, उसे ही झाँसी की रानी समझ बैठते हैं। इस तरह के सच्चे वृत्तान्त वर्मा ने झाँसी के उन बूढ़े, स्त्री-पुरुषों से सुने, जिन्होंने रानी और झलकारी को स्वयं देखा था। आँखों देखा गदर के मराठा लेखक पं विष्णु भट्ट शास्त्री ने लिखा है कि सबसे भीषण संघर्ष झांसी के खुशीपुरा, जहाँ झलकारीबाई का निवास था तथा कोरी समाज की बहुलता थी, वहीं पर हुआ। क्योंकि जिन वस्त्र निर्माताओं की रोटी-रोजी अँग्रेजों ने छीन ली थी, वहाँ के स्त्री-पुरुषों ने घर से बाहर निकल कर जोरदार गोरिल्ला युद्ध छेड़ दिया था, इसीलिए 1857 के इस जनविप्लव को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है।

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