रावेंद्र शुक्ला
बारा।केन्द्र एवं प्रदेश सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा एवं सम्मान के दृष्टिगत अनेक आदेश एवं अध्यादेश जारी किए हैं।लेकिन कहीं न कहीं इसका दुरुपयोग किया जाने लगा है।अक्सर ग्रामीण इलाकों में देखा गया है कि प्रतिशोध की आग में एक दूसरे को परेशान करने की सोच रखते हुए किसी भी प्रकार के विवाद को अंत में बलात्कार का रूप दे दिया जाता है।शासनादेश के मुताबिक पुलिस निर्दोष लोगों को भी पकड़कर वैधानिक कार्यवाही शुरू कर जेल भेज देती है।जबकि अगर देखा जाये तो 80% से अधिक मुकदमे केवल प्रतिशोध में लिखे जाते हैं।न्यायपालिका के अनुसार अपनी बहन,बेटियों या पत्नी की संरक्षा,सुरक्षा एवं व्यवस्था उनका सम्बंधित अभिभावक पिता या पति नहीं देख सकते, बल्कि कानून देखेगा।जब हमारे जीवन जीने में भी कानून हावी है, तब तो जिन्दगी का कोई अर्थ ही नहीं बचा।यही वजह है कि सरकारी व्यवस्थाओं के बावजूद पिछले दस-पन्द्रह वर्षों से आज बलात्कार,रेप या अन्य असामाजिक गतिविधियां बढ़ी हैं।लड़कियां अपना जीवनसाथी चुनने को स्वतंत्र हैं, बाप या अन्य सम्बन्धियों की आवश्यकता ही नहीं रह गई।चाहे वह किसी भी धर्म से सम्बंधित हो। परिणामस्वरूप कुछ समय बाद सम्बंध-विच्छेदन या उनके 35 टुकड़े करके फेंक दिया जाता है।सरकारों को इसे संज्ञान में लेते हुए वास्तविक नारी संरक्षण, सुरक्षा पर सतर्क रहते हुए व्यवस्था बनाये रखने की आवश्यकता होगी। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ठीक ही लिखा था--"ढोल,गंवार, शूद्र, पशु,नारी।।सकल ताड़ना के अधिकारी।।अर्थात ताड़ना का अर्थ मारना या पीटना नहीं होता, बल्कि ताड़ना का अर्थ होता है कि ढोल,गंवार,पशु, शूद्र और नारियों पर निगरानी करते रहना चाहिए।ताकि आपकी व्यवस्था पर अव्यवस्था न हावी हो।