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दबा के कब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम, जरा सी देर में क्या हो गया जमाने को

Tuesday, December 27, 2022

/ by Today Warta



राजीव कुमार जैन रानू

घनघोर गरीबी में भी, उर्दू के सबसे बड़े शायर मिर्जा गालिब ने स्वाभिमान पर कभी आँच नहीं आने दी

ललितपुर। मिर्जा गालिब की जयंती पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि भारतीय नव चेतना के अग्रदूत मिर्जा गालिब का कवित्व न केवल श्रेष्ठतम संवेदनाओं की अभिव्यक्ति करता है, अपितु भारतीय संस्कृति के निचोड़ मानवता से प्रेम करना सिखाता है। यहाँ तक कि उन्होंने जीवन के अत्यधिक कठिन क्षणों में भी इन आदर्शों का दामन नहीं छोड़ा। गालिब अपने पत्र में लिखते हैं, मैं सम्पूर्ण मानव जाति से हिन्दू, मुस्लिम या ईसाई के रूप में प्रेम करता हंू और उन्हें अपना भाई समझता हूँ। दूसरा इसे माने या न माने। अपने एक शेर में इसी बात को वे इस तरह कहते हैं हम भव हिहद है, हमारा केश है तुर्केरूसूम मिल्लते जब मिट गई, अज्जा-ए-ईमां हो गई। गालिब का मानवता के प्रति पूर्ण विश्वास था। उनकी आस्था उनको धर्म और जाति के सीमित बन्धनों से परे, हर किसी से आत्मीयता, प्रेम और सद्भावना बरतने पर मजबूर किया करती थी। अंतिम मुगल सम्राट 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महानायक बहादुर शाह जफर शायर के वे गुरु थे। शहंशाह को अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किये जाने पर गालिब की पेंशन बंद हो गयी। हालत इतनी बिगड़ गई कि अपने एक शुभचिंतक को वे पत्र में लिखते हैं मेरा हाल मुझसे क्या पूछते हो, एकाद दिन पड़ौसियों से पूछना ऐसी खुरदरी और निर्मम सच्चाइयों के दौर में उनके फारसी के असाधारण ज्ञान को देखकर अंग्रेज सरकार के बड़े हाकिम टामसन ने दिल्ली कॉलेज में शिक्षक की नौकरी देने के लिए गालिब को अपनी कोठी पर बुलाया तो गालिब शाही अंदाज में, पालकी में बैठकर कोठी के गेट पर पहुँचे पर अंदर प्रवेश नहीं किया कि अंग्रेज हाकिम उनकी अगवानी करने प्रवेश द्वार पर क्यों नहीं आया? नतीजतन महान स्वाभिमानी गालिब उल्टे पाँव अपने घर वापिस आ गए। उन्होंने इस सच को साबित कर दिया कि राजा और प्रशासक का आदर सिर्फ उसके राज्य तक सीमित है पर विद्वान का आदर विश्व में सर्वत्र है। तभी तो महाराजा छत्रसाल ने अगवानी करते हुए महाकवि भूषण को आदर देने के लिए उनकी पालकी में अपने राज्य की सीमा पर कहार को अलग करते हुए अपना कन्धा कवि की पालकी में स्वयं लगा दिया था।

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