देश

national

भगवान आदिनाथ के मोक्ष कल्याणक पर विशेष : अजय बरया

Thursday, January 19, 2023

/ by Today Warta



राजीव कुमार जैन रानू

ललितपुर। आदिनाथ भगवान को जैन धर्म का संस्थापक तथा प्रथम तीर्थंकर माना जाता है जिनका जन्म भारतभूमि में हुआ था। इनको ऋषभदेव तथा वृषभदेव के नाम से भी जाना जाता है। जैन धर्म की  पवित्र पुस्तक आदि पुराण में विस्तृत रूप से उल्लेख मिलता है भगवान ऋषभनाथ का जन्म भारत के पावन शहर अयोध्या की भूमि पर हुआ था। आदिनाथ का जन्म चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को उत्तरषाढ़ा नक्षत्र में हुआ था। जैन धर्म के अनुसार यह तृतीय काल था। इनका जन्म इश्वाकु वंश में हुआ था। जैन धर्म की मान्यता के अनुसार किसी भी तीर्थंकर का जन्म उनकी माता को शुभ स्वप्न आने से होता है। इसी कारण आदिनाथ जी की माता को भी उनके जन्म से पहले 16 शुभ स्वप्न आये थे और उसके पश्चात ही उनका जन्म हुआ था आदिनाथ के पिता का नाम राजा नाभिराय था जो अयोध्या के राजा थे। आदिनाथ की माता का नाम मरूदेवी था। जैन मान्यता के अनुसार आदिनाथ के दो विवाह हुए थे जिनके नाम नंदा तथा सुनंदा  थे। नंदा से उन्हें 99 पुत्र (चक्रवर्ती राजा भरत सहित) तथा एक पुत्री ब्राह्मी हुए थे। सुनंदा से उन्हें एक पुत्र बाहुबली तथा एक पुत्री सुंदरी हुए थे। स्वयं के मुनि बन जाने के बाद उन्होंने अपने पुत्र भरत को अयोध्या का राजा घोषित कर दिया था और बाकि 99 पुत्रों और उनके पुत्रों में भारत के अन्य राज्य बाँट दिए थे। जैन मान्यता के अनुसार भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारत पड़ा था भगवान आदिनाथ के कई अन्य नाम थे। यहाँ तक कि आदिनाथ नाम भी उनका बाद में पड़ा था। बचपन में उनका नाम ऋषभदेव था। आइए उनके अन्य नाम और उनका अर्थ जानते हैं।ऋषभदेव/ ऋषभनाथ- असली नाम (माता-पिता द्वारा दिया गया)आदिनाथ- जैन धर्म के संस्थापक होने के कारण (अर्थात जिसनें इस सृष्टि की शुरुआत की हो)वृषभनाथ- वृषभ (बैल) का चिन्ह होने के कारण नाभिया- पिता नाभि के कारणआदिपुरुष- जैन धर्म की स्थापना करने वाले प्रथम पुरुषआदिब्रह्मा- मनुष्य को प्रथम बार ज्ञान देने के कारण उन्हें आदिब्रह्मा कहा गया प्रजापति- प्रजा को सब सिखाने के लिए उन्हें प्रजापति कहा गया इसके अलावा उन्हें पुरुदेव, आदिश्वर, युगादिदेव, प्रथमराजेश्वर, आदिजिन, आदर्श पुरुष, आदीश इत्यादि नाम से भी जाना जाता है भगवान आदिनाथ का चिन्ह वृषभ था जिसे बैल भी कहा जाता है।भगवान आदिनाथ का वर्ण- क्षत्रिय (इश्वाकू वंश) तथा देहवर्ण- स्वर्ण रंग (नारंगी-पीला)लंबाई/ ऊंचाई- 500 तीर के बराबर/ 4920 फीट/ 1500 मीटर/ 1312 एल्सआयु- 84 लाख वर्ष पूर्वआदिनाथ को इस युग के निर्माता के रूप में जाना जाता हैं। इनसे पहले मनुष्य कोई काम नही करते थे अर्थात पढऩा-लिखना, खेती, व्यापार इत्यादि किसी भी चीज का प्रावधान नही था। जैन मान्यता के अनुसार उस समय तक मनुष्य की सभी आवश्यकताएं कल्पवृक्ष से पूरी हो जाया करती थी लेकिन धीरे-धीरे कल्पवृक्ष की शक्तियां कम होती  गयी।इसके बाद भगवान आदिनाथ ने ही मनुष्य को सब ज्ञान दिया। उन्होंने मनुष्य को जीवन जीने के लिए छह काम सिखाये थे जिसमें असि- रक्षा करने के लिए अर्थात सैनिक कर्म,मसि- लिखने का कार्य अर्थात लेखन, कृषि- खेती करना और अन्न उगाना, विद्या- ज्ञान प्राप्त करने से संबंधित कर्म,वाणिज्य- व्यापार से संबंधित, शिल्प-मूर्तियों, नक्काशियों, भवनों इत्यादि का निर्माण। कहने का तात्पर्य यह हुआ कि भगवान आदिनाथ ने ही लोगों को सुनियोजित तरीके से भवन निर्माण करना, नगर बसाना, खेती करके अन्न उगाना और उससे भोजन करना, शिक्षा प्राप्त करना और उससे समाज में नियमों की स्थापना करना, व्यापार करके उन्नति करना और पैसे कमाना, अपनी या अपने परिवार या देश की रक्षा करना तथा इन सभी को लिपिबद्ध करना इत्यादि सिखाया। इस तरह से मनुष्य को मूलभूत चीजों को सिखाने का श्रेय भगवान आदिनाथ जी को जाता है जैन मान्यता के अनुसार, एक बार हिंदू देवता व स्वर्ग के राजा इंद्र देव आदिनाथ की सभा में आये हुए थे। तब वे दोनों नृतकियों का नृत्य देख रहे थे। उसी समय नीलांजना नामक एक नृतकी की आयु पूरी हो गयी और उसकी मृत्यु हो गयी। यह देखकर भगवान आदिनाथ को मृत्यु के दुखद सत्य का ज्ञान हुआ।उन्होंने उसी समय सांसारिक मोह-माया, राजपाठ इत्यादि त्याग कर सन्यासी बन जाने का निर्णय लिया। उन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र भरत को सौंप दिया और बाकि के पुत्रों में राज्य का भाग बाँट कर सिद्धार्थ नगर चले गए। इसके बाद वहां जाकर उन्होंने वस्त्रों का त्याग किया और नग्न अवस्था में आ गए। अब ऋषभनाथ पूरी तरह से मुनि बन चुके थे।ऋषभदेव जी के त्याग को देखते हुए उनके साथ कई राजा व प्रजा के लोग भी आये थे जिन्होंने सन्यास ले लिया था। इसमें उनके पुत्र व प्रपोत्र भी थे। आदिनाथ अब केवल भिक्षा मांगकर अपना जीवनयापन करते थे। चूँकि वह पहले तीर्थंकर थे, इसलिए लोगों को यह नही पता था कि उन्हें भिक्षा में क्या दे। इसलिए वे उन्हें आभूषण, हीरे-मोती इत्यादि बहुमूल्य वस्तुएं दिया करते थे, ना कि भोजन।इससे उनके साथ के लोगों में व्याकुलता होने लगी और वे भूख-प्यास से बेहाल होने लगे। इसी तरह भगवान आदिनाथ को भूखे रहते हुए 13 माह से ऊपर हो गए थे। एक दिन वे भ्रमण करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे जहाँ उनके प्रपोत्र श्रेयांश ने उन्हें इक्षुजल  पीने को दिया। उन्होंने लगभग एक वर्ष बाद कुछ ग्रहण किया था, इसलिए इस दिन का महत्व बढ़ गया। यह दिन हिंदू कैलेंडर के अनुसार वैशाख माह की शुक्ल तृतीया थी जिसे आज अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता हैं। इस दिन का जैन धर्म में बहुत महत्व है इसके पश्चात भगवान आदिनाथ ने लगभग एक हजार वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। अंत में फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को प्रयागराज के पुर्वतालपुर उद्यान में वटवृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यहाँ पर कैवल्य ज्ञान से अर्थ भूत, वर्तमान व भविष्य का संपूर्ण ज्ञान प्राप्ति से है।इसके बाद इंद्र देव व बाकि देवताओं ने मिलकर भगवान आदिनाथ के उपदेश देने के लिए समवशरण नामक जगह की स्थापना की थी। इसमें वे देवताओं, मनुष्यों, मुनियों इत्यादि को धर्म का उपदेश दिया करते थे। मान्यता के अनुसार भगवान आदिनाथ के 84 गणधर, 84 हजार मुनि (साधू या जैन भिक्षु, पुरुष) तथा 3.5 लाख के आसपास साध्वियां (जैन भिक्षु, महिला) थी।केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात आदिनाथ तीर्थंकर के रूप में 99 हजार साल तक पृथ्वी पर रहे और धर्म का प्रचार-प्रसार किया। जब उनकी मृत्यु के 14 दिन शेष रह गए थे तब वे अष्टपद पर्वत (कैलाश पर्वत) चले गए थे। अंत में उन्होंने माघ मास की कृष्ण चतुर्दशी के दिन निर्माण/ मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। इस दिन को जैन धर्म में भगवान आदिनाथ के निर्वाणोत्सव या मोक्ष प्राप्ति के रूप में मनाया जाता है। हिंदू धर्म के कई ग्रंथों में ऋषभदेव या आदिनाथ जी के नाम का उल्लेख मिलता हैं। महापुराण में उन्हें भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक अवतार बताया गया हैं। सर्वप्रसिद्ध भागवतपुराण में भी लिखा गया है कि जैन धर्म के संस्थापक ऋषभ देव जी थे। उन्हें एक महान ऋषि व तपस्वी की संज्ञा दी गयी है।

Don't Miss
© all rights reserved
Managed by 'Todat Warta'