कमल सिंह
बांदा। शहर के बाबूलाल चौराहे के पास प्रसिद्ध काली देवी मन्दिर काफी प्राचीन है। मन्दिर का निर्माण 1857 के आसपास मराठा शासक ने कराया था। यहां पूरे साल साधकों व अराधकों का मेला लगा रहता है। देवी के पूजन-अर्चन व दर्शन को दूर-दूर से लोग आते हैं। शारदीय व चैत्र नवरात्र में यहां भक्तों की खासी भीड़ लगती है।इस मंदिर के बारे में एक किवदन्ती है कि एक मराठा शासक के साथ साक्षात काली देवी चलती थी। वह कालींजर दुर्ग पर आक्रमण करने आया था, तभी राजा से देवी जी नाराज हो गई और उन्होंने साथ चलने से मना कर दिया तब उक्त राजा ने काली देवी को यही स्थापित किया जहां आज काली देवी मंदिर है।मराठा शासक ने 1857 में देवी जी की प्राण प्रतिष्ठा कराई थी, उस समय वहां घनघोर जंगल था। यह मंदिर 1870 के पहले खसरे में राजकरन मेहता के नाम दर्ज है। 1942 में विष्णु करण मेहता ने मंदिर जीर्णोद्वार कराया। इसके बाद 1947 में शहर के व्याापारी गोटीराम व रमाशंकर गुप्त ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर में देवी मां की स्थापना को लेकर कहीं भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। मंदिर को देवी शक्तिपीठों की तर्ज पर नए सिरे से बनाया गया है। मंदिर के मुख्यद्वार 11 मंजिला है। मुख्य चोटी पर पांच कलश स्थापित है। मंदिर में भक्तों व पुरोहितों के देवी पाठ आदि के लिए अलग से व्यवस्था है। मंदिर के पुजारी कहना है कि मंदिर काफी प्राचीन है। यहां भक्तों की हर मुराद मां काली पूरी करती हैं। रोजाना दर्जनों की संख्या में लोग मुराद पूरी होने पर चढ़ौना चढ़ाने के लिए आते हैं। सच्चे मन से पूजन-अर्चन करने वाले भक्त की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।