राजीव कुमार जैन रानू
ललितपुर। आद्य शंकराचार्य के प्राकट्य दिवस पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि पूर्णता अद्वैतवादी होने के कारण आदि शंकराचार्य का अखंड विश्वास मानव एकता और भाईचारे पर था। वे भारतीय दर्शन और आचार के तत्व ज्ञानी थे। वर्तमान हिन्दू धर्म उन्ही के द्वारा वर्णित स्वरूप से आलोकित है। उनका मानना है कि प्राणीमात्र स्वभावत: चैतन्यमय है, किन्तु अज्ञान के कारण ही, उसकी दृष्टि भेदभावपूर्ण हो जाती है। इसीलिए वे मानते थे कि दुखों के उफनते सागर को मनुष्य में छिपी बड़वाग्नि ही सुखा सकती है। एकत्व का उदघाटक मनुष्य ही अज्ञान के अँधेरे को दूर करने वाला सूर्य है। मुझमें जाति भेद नही। मैं चिदानंदस्वरुप शिव हूँ। वे कहते थे ज्ञान की प्राप्ति सिर्फ विचार से ही हो सकती है। अन्य कोई साधन नही। मात्र 16 वर्षों में ब्रह्म सूत्र पर भाष्य लिखने पर आचार्य शंकर पैदल भ्रमण पर निकल पड़े। उनके द्वारा भारत की चारों दिशाओं में स्थापित तीर्थ ज्ञान के पावर हाउस में जेनरेट होने वाली अक्षय ऊर्जा के उदगम है। आचार्य शंकर का मानना है कि अज्ञान का नाश ही मोक्ष है और है इसी जन्म में सच्चा स्वर्ग है जो शरीर के प्रति आसक्त रहते हुए यह अभिलाषा करता है कि उसे ब्रह्म का साक्षात्कार हो जायेगा, वह मानो मगर की पीठ को ब्रह्मवश लकड़ी का ल_ा समझकर नदी पार करना चाहता है? साथ ही आचार्य शंकर का यह भी कहना है कि जो प्राणीमात्र को आत्मवत् देखता है और साथ-साथ यह भी मानता है कि उसके शत्रु भी हैं, तो वह यह बात निश्चित ही वैसी ही है जैसे अग्नि को ठण्डा कहने की दुराशा। आचार्य शंकर यह भी कहते हैं कि स्त्री को देखने पर जो मोह उत्पन्न होता है वह अज्ञान और भ्रम के कारण। अतएव बुद्धि-विवेक द्वारा यह न भूलें कि शरीर रक्त, मांस, मज्जा का समिश्रण मात्र है। अतएव अपने ऊपर असाधारण आत्मनियंत्रण करके बुद्धि विवेक को सदैव स्थिर रखें।