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दो बैलो की जोडी अब किस्सो कहानियो में पढेगे बच्चें

Friday, September 9, 2022

/ by Today Warta



राकेश केशरी कौशाम्बी। आज से चार दशक पूर्व गांव की पगडंडियों से सड़कों तक बैलगाडियां दौड़ती नजर आती थीं। लकड़ी के पहियों पर ढेर सारा सामान बैलगाड़ी ढोती थी। यह तमाम लोगों को रोजगार भी देती थी, लेकिन बदलते वक्त में विकास की धुंध में इनका रोजगार भी हवा हो गया। बैलगाड़ी बनाने वाले अब सिर्फ लकड़ी का काम कर रहे हैं। एक वक्त में बैलगाड़ी के साथ रथ व अन्य कई ऐसे काम थे जो गांवों में ही नहीं शहर में भी लोगों को रोजगार मुहैया कराते थे। पूरी तरह लकड़ी से बनने वाली बैलगाड़ी में पहिए भी लकड़ी के होते थे। नाय के साथ छह लकडियां लगाते हुए पहिए बनते थे। शहर से करीब बारह किलोमीटर दूर स्थित गांव करनपुर निवासी फूलचन्द्र अपने वक्त में बैलगाड़ी बनाया करते थे। उनके पुत्र रामशंकर बताते हैं कि तीन दशक पूर्व उन्होंने पिता को आखिरी बैलगाड़ी बनाते हुए देखा था। उस वक्त बैलगाड़ी मात्र 400 रुपए में बनती थी। रामशंकर बताते हैं बैलगाड़ी का धंधा तो पिता के जीवित रहते ही खत्म हो गया था। जब बैलगाड़ी बनाने का काम नहीं मिला, तो उन्होंने भी पिता से बैलगाड़ी बनाना नहीं सीखा। करनपुर में उस वक्त लकड़ी का काम करने वाले फूलचन्द्र के घर पर बैलगाड़ी बनवाने वाले लोगो का जमावड़ा रहता था। बुग्गी के विषय में रामशंकर बताता है अब सड़कें बन गई हैं तो लकड़ी के पहियों की जरूरत नहीं रही। 

बदली रोजगार की भी गाड़ी

खेतों में बैलों के साथ हल जोतते किसान अब शायद पुरानी फिल्मों में ही नजर आते हैं। बदलाव की रफ्तार ने जर्जर मार्गो पर धूल उड़ाती बैलगाड़ी को भी धीरे-धीरे आंखों से ओझल कर दिया है। बुग्गी उद्योग के सहारे परिवार का पालन-पोषण करने वाले लोगों का भी यह हाल है कि वह यह धन्धा छोड़ खेती और मजदूरी के अलावा अन्य कार्य कर रहे हैं। जो व्यवसाय बचा भी है उससे जुड़े लोग अब इस धन्धे को घाटे का सौदा मानकर खत्म करने की तैयारी में हैं। 

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