राकेश केसरी
पलायन कर गये तमाम ताम्रकार,शासन व प्रशासन नहीं दे रहा ध्यान
कौशाम्बी। शासन व प्रशासन की अनदेखी के चलते पीतल नगरी की चमक अतीत के गर्द-गुबार के अतीत में दफन होती नजर आ रही है। चैपट हो रहा पीतल उद्योग सिसकियां भर रहा है लेकिन इसकी सिसकी शासन व प्रशासन को सुनाई नहीं पड़ रही है। दम तोड़ रहा उद्योग नई संभावनाओं की तलाश में है लेकिन उसे सभंवना कहीं नजर नहीं आ रही है। इसका भविष्य काफी धूमिल नजर आ रहा है। बता दें मंझनपुर मुख्यालय से मात्र 12 किलोमीटर की दूरी पर शमसाबाद गांव स्थित है। अमूमन यह बस्ती कसेरा जाति के नाम से बाखूबी जानी जाती है। इनका मुख्य व्यवसाय पीतल के बर्तन बनाना रहा है। कभी यहां के पीतल के बर्तनों की धमक स्थानीय बाजारों के अलावा म0प्र0, बिहार तथा राजस्थान आदि प्रदेशों में भी सुनाई पड़ती थी। उत्तर प्रदेश में तो यहां के बर्तन जलवा बिखेर रहे थे। यह जलवा तो दो दशक पूर्व का रहा तब से अब तक तो जमीन-आसमान का फर्क आ गया है। शासन व प्रशासन की उदासीनता के चलते यह उद्योग अब शमसाबाद गांव में अन्तिम सांसे ले रहा है। उखड़ी सांसों के बीच कराह रहे बर्तनों से एक ही आह निकल रही है-संभालों हमें कहीं हम बिखर न जाए, लेकिन संभालने वाले हाथ कहीं नजर नहीं आ रहे है। गांव के राम प्रसाद, हरिशंकर, प्रेमचन्द्र आदि ताम्रकार पीतलों के बर्तन पर चर्चा करते हुए अतीत में खो जाते है। कहना है कि जब यह व्यवसाय सबाब पर था तब हम लोंगो के दिन काफी मजे में कट रहे थे। दिन व रात पीतल के बर्तन तथा-कसाहड़ी, लोटा, थाली व कटोरा आदि के निर्माण में हाथ तेजी से चला करते थे। दूर-दूर से व्यवसायी आते थे और एडवान्स दिए गए आर्डर पर तैयार माल ले जाया करते थे। जैसे-जैसे वक्त बीतता गया वैसे-वैसे पीतल नगरी की खनक भी धूमिल पड़ती गयी। अब तो हालात यह हो गए कि दूर-दूर से आने वाले व्यापारियों का आवागमन बन्द हो गया। शासन व प्रशासन ध्यान नहीं दे रहा है। इसके अलावा स्टील बर्तनों के बाजार में आ जाने के बाद खरीददार भी कम हो गए हैं। शासन द्वारा इस उद्योग को बढ़ावा न मिलने की वजह से पीतल उद्योग दम तोड़ता नजर आ रहा है।
शमसाबाद गली की धूल से ही बनेंगे बर्तन
शमसाबाद की पीतल नगरी भले ही लुप्त प्राय: होने के कगार पर हो लेकिन जब तक इस गांव के गली की धूल पीतल के बर्तनों में नहीं लगेगी तब तक बर्तन नहीं गढ़ सकेगा। लोंगो का कहना है कि यहां की धूल खरीदने म0प्र0, बिहार तथा उडीसा आदि प्रदेशों के व्यवसायी गर्मी के दिनों वाहनों से आते है और यहां की धूल खरीदकर अपने वतन ले जाते है। गांव के तमाम लोग धूल बटोर कर पहले से ही बोरी में भर लेते है और दो सौ से तीन सौ रुपये की दर से प्रति बोरी बेंचा करते है। इससे जहां उनकी रोजी-रोटी चल रही है वहीं व्यवसायी इसे ले जाकर बर्तनों को सुन्दर रूप देकर अपनी आजीविका कमा रहे हैं।
व्यवसाय पर डंक मार रही पुलिस चैकी
पीतल नगरी भले ही परवान न चढ़ पा रही है, लेकिन यहां दी गई सुविधा लुप्त होती जा रही है। तकरीबन तीन दशक पूर्व उद्योग निदेशालय के द्वारा पीतल उद्योग से जुड़े लोंगो को बसाने व रोजगार चलाने के लिए लगभग 25 कमरों की एक कालोनी बनाई गई थी। इस कालोनी में ताम्रकार बस पाते इसके पहले ही पुलिस विभाग ने वहां डंक मारना शुरू कर दिया और वहां पुलिस चैकी खोल दी गई और खाकी वर्दी चहल कदमी करने लगी। ग्रामीणों का कहना है कि यह बात दीगर है कि पुलिस चैकी सुरक्षात्मक दृष्टि से तो अच्छी है, लेकिन जिस उद्देश्य से कालोनी का निर्माण हुआ उसे उद्देश्य से चैकी निर्माण इतर हो गया।