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महाकवि कालिदास की दृष्टि में नियम संयम से जिया गया भोग का जीवन अपने चरित्र में आध्यात्मिक है

Friday, November 4, 2022

/ by Today Warta



इन्द्रपाल सिंह प्रिइन्द्र

ललितपुर। कालिदास जयंती पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि भारतीय आत्मा, गरिमा और प्रतिभा के प्रतिनिधि, मानव अनुभव की गहराईयों से जन्मी श्रेष्ठतम साहित्यक कृतियों के सृष्टा थे कालिदास। कालिदास का मानना है कि ब्रह्म भयं गतिंम आजगाम ज्ञानवान मनुष्य, सर्वोच्च-कालरहित जीवन को प्राप्त होता है। अच्छे कामों के फल को ही स्वर्ग कहते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि सुसंगत सामाजिक संबंध ही जीवन को जीने योग्य बनाते हैं। कालिदास द्वारा वर्णित रघुवंशी राजा दान करने के लिए ही धन इक_ा करते थे। सत्य की रक्षा के लिए ही बहुत कम बोलते थे। वे बचपन में पढ़ते थे, तरुणाई में संसार के आनंद भोगते थे। बुढ़ापे में साधु संतों के समान तपस्या करते थे। जैसे सूर्य अपनी किरणों से जो जल खींचता है, वैसे ही रघुवंशी राजा प्रजा की भलाई में लगा देने के लिए ही राजस्व जमा करते थे। फलत: राज्य का प्रत्येक व्यक्ति सोचता था और साथ ही राजा भी सोचता था कि वे परस्पर मित्र हैं। कालिदास ने हिमालय से समुद्र तक की यात्रायें की हैं, उनके मेघदूतम् में रामगीरि से लेकर हिमालय तक के मार्ग में पडऩे वाले ललितपुर जनपद के देवगढ़ (देवगिरि) के पहाड़ों से अठखेलियाँ करती बेतवा नदी का गत्यात्मक सौन्दर्य इतना मनोरम है कि टकटकी लगाकर हम देखते ही रहें। शेक्सपियर के नाटकों की तरह कालिदास के नाटकों में भी राजाओं, महाराजाओं का वर्णन है। लेकिन कालिदास ने उनके गुणदोषों पर समान नजर रखी। कालिदास अपने नाटकों में बल देते हैं कि शारीरिक आकर्षण से उत्पन्न हुए प्रेम का शुध्दता और संयम में रूपांतरण होना चाहिए। कालिदास प्रेमियों के प्रथम मिलन को नैतिक पतन नही मानते। वे पापी नही,  बल्कि विरह की अग्नि पीड़ा में वे निखरेंगे। जीवन का लक्ष्य आनंद और पवित्रता है, न कि विलासिता और असंयत लालसा। पत्नी, पति की संपत्ति नहीं, बल्कि उससे जुड़कर मुक्कमल इकाई बननी है। ईश्वर भी आधा नर और आधी नारी है। पारिवारिक जीवन जीते हुए मनुष्य स्वभाव से संत महात्मा हो सकता है।

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