राकेश केशरी
आखिरी पड़ाव पर कुओं की उपयोगिता
कौशाम्बी। जल को देवता मानकर हिन्दू समाज में कुओं की पूजा की जाती है। आधुनिकता के दौर में इनका वजूद मिटता जा रहा है। कुओं की जगह हैंडपंप व जेट पम्पों ने ले ली है। दो दशक पूर्व शायद ही कोई ऐसा गांव रहा होगा जहां दर्जन भर कुएं न रहे हों। बीती कई सदियों से प्यास बुझाने वाला कुआं विलुप्त होने की कगार पर है। किसी जमाने में घर तथा गांव की शान समझा जाने वाला कुआं इतिहास के पन्नों में सिमटता जा रहा है। शासन द्वारा कुओं का अस्तित्व बचाने के लिए कई योजनाएं लाई गई, लेकिन वे धरातल तक नहीं पहुंच सकीं। जमींदारों तथा बड़े किसानों के अहाते में जगत वाला कुआं शान का प्रतीक माना जाता था। गांव के हर मोहल्ले में कम से कम एक कुआं अवश्य रहता था। अक्सर गांव के बाहर बड़े कुएं होते थे, जिनसे बागों तथा खेतों की सिंचाई की जाती थी। दूर-दराज जाने वाले राहगीर भी साथ में लोटा-डोरी लेकर चलते थे तथा कुओं से पानी भरकर अपनी प्यास बुझाते थे। बड़े-बड़े रजवाड़े गांवों तथा मार्गो पर पंचायती कुआं बनवाते थे। धीरे-धीरे हैंडपंप का प्रचलन जोर पकड़ता गया तथा जगह-जगह राजकीय नलकूप बनवाए गए। पहले लोग केवल पेयजल के लिए ही हैंडपंप का इस्तेमाल करते थे तथा सिंचाई एवं अन्य कार्यों के लिए कुएं का सहारा लेते थे। विकास के इस दौर में लोगों के हाथ में कुएं की उबहन तथा बाल्टी की जगह हैंडपंप का हत्था आ गया है। आज कुएं का प्रयोग सिर्फ शादी विवाह में रस्म अदायगी के लिए ही होता है। जनपद में कुंओ का उपयोग न होने की वजह से कुएं झाड़-झंखाड़ से घिर गये तथा अधिकांश पाट दिये गये हैं। निरंतर गिरते जल स्तर ने भी कुओं के वजूद को संकट में डाल दिया है।