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विश्व धरोहर दिवस विशेष: मजदूर-शिल्पियों ने खून-पसीने की लागत से, देवगढ़ के बेजान पत्थरों में

Monday, April 17, 2023

/ by Today Warta



इन्द्रपाल सिंह'प्रिइन्द्र

प्राण फूंककर मानवता को सत्यम्-शिवम् और सुन्दरम् की अनमोल सौगात सौंपी है

ललितपुर। विश्व धरोहर दिवस पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो.भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्णयुग माना जाता है। संसार में महाकवि कालिदास जैसे कवि और नाटककार एवं ललितपुर के देवगढ़ स्थित दशावतार मंदिर हमारे समृद्ध कला वैभव की जीवंत विरासत है। यह मंदिर 515-525 ईसवी की एकमात्र आखिरी निशानी है। अत: वैश्विक दृष्टि से प्राथमिकता के आधार पर यह परम संरक्षणीय है। इसे संसार के इतिहासकार विष्णु मंदिर के नाम से भी जानते हैं। महाभारत के नारायणीय उपाख्यान छ: अवतारों की चर्चा है-बराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, दशरथनंदन राम और वासुदेव कृष्ण। इसके बाद चार और अवतारों में हंस, कूर्म, मत्स्य और कल्कि जुड़कर संख्या दस हो गई है। आगे चलकर कुल चौबीस अवतार तक पहुंच गई है। परन्तु लोकमान्य रामावतार एवं कृष्णावतार में ही अन्य सभी अवतार समा गये हैं। क्योंकि इन्हीं को गुणावतार, लीलावतार और पुरुषावतार के रूप में सर्वस्वीकार्यता पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। ललितपुर से थोड़े आगे जाखलौन रेलवे स्टेशन से देवगढ़ पहुंचने का सुगम मार्ग है तथा टेक्सी आदि भी अविराम गति से आती जाती रहतीं हैं।उन्होंने कहा कि देवगढ़ वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन और बौद्ध धर्मों का विलक्षण संगम है। प्रख्यात साहित्यकार एवं वास्तुविद आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपने अकाट्य तर्कों के आधार पर इसे शिवमंदिर न मानकर विष्णुमंदिर सिद्ध कर दिया। जबकि पूर्व परम्परा के अनुसार शिवमंदिर के रूप में ही इसे जाना जाता था। उन्होंने कहा कि इस मंदिर के ललाटविम्ब जिसे बुन्देली बोली में लिलारी कहते हैं, उस पर शेषसायी विष्णु विराजमान है इसलिए वैष्णव मंदिर कहा जाना वस्तुत: सभी विद्वानों को समीचीन लगा और विवाद स्वत: शान्त हो गया। इसका गर्भग्रह बहुत छोटा 3म3 मीटर का है पर एक अतिविशाल चबूतरे पर यह स्थित है। चारों ओर कोनों पर एक-एक छोटे मंदिर भी थे अत: इसे पांच मंदिरों के समूह के कारण पंचायतन श्रेणी का मंदिर कहा जाने लगा। काल के प्रवाह में मंदिर का शिखर खंडित अवस्था में है परन्तु स्पष्टत: आभास होता है कि 13 मीटर ऊँचा जरूर रहा होगा। प्रो. शर्मा ने आगे बताया कि मंदिर के विशाल चबूतरे में फलकों की दो पंक्तियाँ हैं, इनमें रामायण और कृष्णलीला के दृश्यों को अंकित किया गया है। यथा देवकी वसुदेव अथवा नंद यशोदा कृष्ण को खिलाते हुए और शकटासुर का संहार करते हुए दर्शाये गये हैं। रामलीला के अंतर्गत अहिल्या उद्धार, शूर्पणखा, सीताहरण का दृश्यांकन किया गया है। परम्परानुसार गुप्तकालीन परम्परा में द्वारशाखा (चौखट) बहुत ही मनभावन लगती है। चौखट पर प्रेमीयुगल दाम्पत्य जीवन के उल्लास में लीन दिखाये गये हैं। इसके बगल में कुब्जक (बौने) यक्ष या गण विचित्र विचित्र भंगिमाओं के द्वारा एक विलक्षण हास्य विनोद उत्पन्न करते हैं। दोनों ओर गंगा- यमुना की मूर्तियां हैं। इस परिचयात्मक जानकारी के पश्चात उक्त विश्वविख्यात तीन फलकों की विशेषताएं परम उल्लेखनीय है। इनमें दक्षिण ओर शेषशायी भगवान विष्णु हैं। पूर्व की ओर नारायण तपस्या का नयनाभिराम दृश्य है और उत्तर दिशा में गजेन्द्रमोक्ष का दृश्य है। भगवान विष्णु उस चरम अवस्था के प्रतीक हैं जब सृष्टि का विलय हो जाता है और परिणामत: सृष्टि उदय की ओर अग्रसर हो जाती है। विष्णु शेषनाग के सहस्त्र फणों की छाया में निश्चिंत होकर लेटे हैं। पुराणों में जोर देकर कहा है कि शान्ताकारं भुजग शयनं यानि कालकूट सर्पों की शय्या पर लेटे होने के बाबजूद वे परमशान्त हैं। सचमुच वे ऐसे मानवातार हैं जैसे मनुष्य अपने जीवन में नाना प्रकार की विपत्तियों का मुकाबला धीरज के साथ मुस्कराते हुए सदैव करता रहता है। ऐसे संघर्षशील नर वस्तुत: स्वयं नारायण बन जाते हैं। इस फलक में विष्णुजी की छवि पर राजसी भाव आलोकित है। परन्तु तनिक भी निष्क्रियता से आक्रांत नहीं है। लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रही हैं जो अपने आप में बड़ा ही अर्थपूर्ण प्रतीक है और समसामयिक परिस्थितियों में अत्यन्त सटीक है। क्योंकि श्रमोत्पादित लक्ष्मी (धन) के फल की हेराफेरी परोपजीवी दिन रात करते रहते हैं तथा उनका मुंडा इतना बौरा जाता है कि आदमी को आदमी नहीं समझते। इसलिए धन का स्थान भगवान के चरणों में ही दर्शाया गया है। आकाश में इन्द्र विष्णु, शिव अपने-अपने वाहनों पर उड़कर इस लीला को देख रहे हैं। शिल्पकार ने बड़े कौशल से विष्णु की नाभि से निकले आदिकमल पर बैठे ब्रह्मा को देवपरिवार की इसी मंडली में आसन्न कर दिया है। इस दृश्य में विष्णु के आयुध की आकृतियां उकेरी गई हैं जो राक्षसों के संहार की सन्नद्धता की प्रतीक हैं। दूसरे फलक में नर-नारायण तपस्या का चित्रण किया गया है। क्योंकि विष्णु ने नारायण के साथ साथ नरावतार भी लिया। गीता में ही कृष्ण और अर्जुन के रूप में हैं। इनमें एक पूर्ण अवतार हैं जिनसे दूसरा ज्ञान प्राप्त करता है। इस फलक में तीर्थराज बदरिकाश्रम में स्थित छोटे बड़े दो पहाड़ कृष्णार्जुन के प्रतीक माने जाते हैं। कुछ पहाड़ के पठारों पर शेर और हिरण साथ-साथ चिन्तामुक्त होकर सोते हुए दिखाई देते हैं जिसमें भारतीय संस्कृति के शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व को रेखांकित किया गया है। बदरि को बेर कहा जाता है। अत: बदरिविशाल के इस तपोवन में बेरों के वृक्ष दर्शाये गये हैं जो तपस्वनि माता शबरी की नवधा भक्ति की याद दिलाते हैं। चतुर्मुखी नारायण अपना ज्ञान जिज्ञासु शिष्य को हस्तांतरित करते हुए एवं ज्ञानग्रहीता शिष्य को तर्क-वितर्कशील सूक्ष्मतम् भावमुद्रा में चित्रांकित किया गया है। तीसरे फलक का विषय गजेन्द्रमोक्ष है। इस दृश्य को शिल्पकारों ने तीन समानान्तर फलकों में संयोजित किया है। सबसे ऊपर दिव्यलोक है जहां से गरुणासीन विष्णु नीचे की ओर बहुत आतुरता के साथ उतर रहे हैं। उसी आकाश पर दो देवदूत एक विशेष प्रकार का मुकुट लिए हुए हैं। जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो विष्णु हाथी की चीत्कार को सुनकर इतनी तेजी से दौड़े कि कदाचित मुकुट लगाना भूल गये हों। हाथी की याचनाभरी सजल दृष्टि और उठी हुई सूंड़ के मार्मिक दृश्य में एक आड़ी रेखा उत्पन्न हो जाती है मानो विष्णु का पीड़ित से सहसा अभिन्न जुड़ाव हो गया है। गजराज का आतंकित भाव से विष्णु की शरण में जाकर ही कोई भी मनुष्य अपने प्राणों के संकट से त्राण पा सकता है। स्वयं भगवान विष्णु की त्वरा जिसका वर्णन भागवत महापुराण में किया गया है वह उस आपदधर्म का बोध कराती है कि जैसे कोई बालक नदी में डूब रहा हो तो हम प्रत्यक्षदर्शियों से बतराने लगें कि चिन्ता नहीं करो मैं तुरन्त अपना स्वीमिंग सूट लेकर आ रहा हूं या चिकित्सालय में ऑक्सीजन के अभाव में मरीज की साँसें टूट रही हों और बड़े बाबू साहब के कहने पर फाईल में लगे दर्जनों रिमाईन्डर दिखा रहे हों कि अपेक्षित सप्लाई के प्रति हमारी सजगता में कोई कमीं नहीं रही। 14 वर्ष का वनवास झेलकर जब भगवान राम अयोध्या पहुंचे तो भरतजी को देखकर वे समस्त प्रोटोकॉल भूल गये। इस प्रसंग महात्मा तुलसीदास कहते हैं उठे राम तब प्रेम अधीरा-कहुं पट, कहुं निषंग, धनु तीरा। गजेन्द्रमोक्ष का उक्त दृश्य भारतीय स्थापत्य एवं सर्वोत्कृष्ट मूर्तिकला का विश्व मानवता के लिए अनुपम उपहार है। सिकन्दर के भारत आक्रमण के बाद कनिष्क के जमाने में गुप्तकाल में यूनानी वाह्य रूपांकन एवं पारम्परिक भारतीय आत्मा के व्यापक आत्मिक सौन्दर्य का समिश्रण मूर्तिकला के माध्यम से हुआ है, उसी को गांधारकला कहते हैं। कवि और लेखक रामधारीसिंह दिनकर अपने इतिहासग्रन्थ संस्कृति के चार अध्याय में इस गंगा-जमुनी मंदिर निर्माण एवं मूर्तिकला को देखकर कहते हैं कि जैसे वाल्मीकि के बगल में कालिदास बैठे हों अर्थात विशाल से विशाल और सूक्ष्म से सूक्ष्म मनोभावों को छैनी से उकेर देना कितना विलक्षण है। निसंदेह देवगढ़ का दशावतार मंदिर शिल्पीश्रमिकों की एक ऐसी कृति है जिसमें सुखी जीवन के लिए संघर्षरत मानव की स्तुति है।

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