इन्द्रपाल सिंह'प्रिइन्द्र
ललितपुर। महर्षि नारद जयंती पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि देवों और दानवों में अपनी सत्यान्वेषी दूरदृष्टि निस्वार्थ प्रेम और सदभाव के उन्नायक देवों के रिषी जब वाल्मीकि के आश्रम में पहुंचे तो वे उस समय महाकाव्य लिखने की तैयारी कर रहे थे, उन्होंने कहा की समस्त सद्गुणों की एक तालिका बनाओ और पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करके यह बताओ कि किस एक व्यक्ति में, ये सारे गुण मूर्तिमान हैं? चारित्र्येण च को युक्त:? नारदजी ने उत्तर दिया कि मैं सर्वत्र घूमकर ही आ रहा हूँ और बिना किसी संकोच के यह कह रहा हूं कि दशरथनंदन राम समस्त गुणों की खान है और धर्मवृक्ष के बीज हैं, बाकी सभी डालें और पत्ते हो सकते हैं रामो विग्रहवान् धमर्: मानव जीवन कोई कवायद या शारीरिक खींचतान नहीं हैं, यह एक मुसलसल कशमकश और एक ऐसा संघर्ष है, जो क्या है? और क्या होना चाहिए के बीच में सदा से चल रहा है। आज भी हममें से प्रत्येक के मनमंदिर में नारद जी अम्पायर या निर्णायक रूप में अभी भी बैठे है जो इस या उस पक्ष यानि शुभ और अशुभ दोनों की दलीलें बड़े गौर से सुनते तो हैं, पर फैसला अन्त:करण की आवाज पर शुभ के पक्ष में देते हैं और न्याय तथा अन्याय के पक्ष में वे कभी तटस्थ नहीं रहते बल्कि निर्बल के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। आधुनिक प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (अखबार/ टेलीविजन) की तरह देवर्षि सबकी सुनते हैं, खबर रखतें हैं और सबकी खबर भी लेते हैं। प्रत्येक के सुख दुख को बांटते हैं। वे संवाद विधा के आदिपुरुष हैं क्योंकि भारतीय धर्मशास्त्र यथा महाभारत और भागवत पुराण में उनका उल्लेख प्राय: संवाद करते हुए किया गया है। नारदीय प्रेमलक्षणा भक्ति के गीत जब उनकी वीणा में झंकृत हो उठते हैं तो नर-नारायण में और नारायण- नर में एकरूप होकर तन्मय हो उठते हैं। यही उनके श्रीमन्नारायण मंत्र का सार है। महाकवि मैथिलीशरण गुप्त अपने द्वापर काव्य में नारद जी के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहते हैं जीवन में भी जब जीवन हो, तब सजीवता है जन की अरे आग भी कभी लगानी पड़ जाती है हमें यहाँ, कूड़ा-कर्कट ही न अन्यथा भर जावे, जहां तहां (छान्दोग्य उपनिषद 96) में रिषियों-मुनियों ने ब्रह्मर्षि नारद को भक्ति युग के आचार्य, वैदिकदृष्टा, यज्ञाचार्य कहा है। वे सच्चे धर्मवेत्ता और तत्ववेत्ता थे। वे वीणा बजाते हुए तीनों लोकों और तीनों कालों में अखण्ड संचार करते थे । सचमुच उनके युग में आज की ही तरह भारतीय इंटरनेट तंत्र की समृद्ध तकनीक रही होगी। अत: उनको आधुनिक संचार तंत्र (आई टी)का अग्रदूत माने जाने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कैसी बिडम्वना है कि नारदजी जैसे सत्यवादी ब्रह्मर्षि की गंगा जैसी पवित्र छवि को पिछले कई दशकों से सिनेमा की सेल्यूलाईट मसाला फिल्मों में बॉक्स-ऑफिस पर हिट होने के लिए व्यवसायिकता की अंधी दौड़ में एक ऐसे साधु के रूप में विरूपित कर दिया है जो अक्सर खड़ी चोटी वाले एक ऐसे महात्मा के रूप में दिखाई देते हैं जिनकी हसोड़ और नकारात्मक छवि दर्शायी जाती है। इसलिए सिनेनिर्देशकों को पौराणिक आस्था की सात्विकता के प्रति जागरूक रहने की आवश्यकता है।