राकेश केशरी
कौशाम्बी। द्वाबा की मिट्टी से जो मटके बनाए जाते हैं। उसकी शीतलता अन्य जगहों की अपेक्षा काफी होती है। इसीलिए यहां के मटके गुजरात, भोपाल, इंदौर, महाराष्ट्र आदि जगहों में अपना जलवा बिखेर रहे हैं। प्लास्टिक युग में इन्हीं मटकों की कमाई से नारा के कई परिवार जीवन गुजर बसर कर रहे हैं। तेजी से बढ़ रहे इलेक्ट्रानिक युग में फ्रिज ने सभी घरों में कब्जा कर लिया है लेकिन लोग मटके की ठंडई भूल नहीं पा रहे हैं। पहले तो फ्रिज के आने पर इस धंधे में लगे लोगों को लगा कि सुराही,मटका खत्म हो जाएगा लेकिन जब फ्रिज के ठंडे पानी का असर देखा गया तो बड़े लोग भी मटके पर आश्रित हो गए। डाक्टरों का कहना है कि मटके के पानी का तापमान सामान्य रहता है। जो पीने में किसी तरह का नुकसान नहीं करता है जबकि फ्रिज का पानी का तापमान घटता.बढ़ता रहता है। अधिक ठंडा पानी शरीर के सेहत को नुकसान करता हैं। सिराथू तहसील के नारा गांव में कुछ ऐसे परिवार हैं जो सिर्फ मटके को ही बनाकर धंधा करते हैं। ऐसे ही मैकन कसगर हैं जो गर्मी के महीनों में मटके बनाकर पकाते हैं। फिर उन्हें मुंबई,भोपाल,गुजरात, महाराष्ट्र के लिए भेज देते हैं। उन्होंने बताया कि सबसे परेशानी मिट्टी को लेकर है। अब लोग अपने खेतों से मिट्टी नहीं निकालने देते हैं। तालाब भी अधिकतर पट गए हैं। पूरा परिवार मटका बनाकर जीवन यापन करता हैं। बताया कि मटके के निचले हिस्से को मोटी परत से बना देने पर मटके की मजबूती बढ़ जाती है। वहीं अन्य मटकों की अपेक्षा इनकी ठंडई काफी ज्यादा होती हैं। महीने भर में 17 सौ मटके बना लेते हैं। एक मटके की कीमत बीस से तीस रुपये के बीच होती है जो गुजरात,मुंबई में सत्तर से सौ रुपये के बीच बिकता हैं। मटका ही उसका स्रोत है। नूर आलम का कहना है कि इस समय सबसे ज्यादा परेशानी ईधन को लेकर होती है। पहले मवेशी गर्मी के महीने में छुट्टा रहते थे। उनके गोबर से ईधन मिल जाता था। अब ईधन की परेशानी काफी है। मृदा वैज्ञानिक डा0 मनोज सिंह का कहना है कि यहां की मिट्टी बलुई दोमट है जो मिट्टी के कणों को ठंडा रखने में काफी सहायक है।